rani lakshmi bai hindi
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परिचय
रानी लक्ष्मीबाई (rani lakshmi bai)
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झाँसी की रानी भारतीय इतिहास का एक ऐसी वीरांगना है जिनका नाम से ही हमारा हिर्दय मुग्ध हो उठता है। उनके चरणों में सीस झुकता है। इसकी बलिदान का गाथा देश के कण-कण में गूंजता है। उनकी स्वाभिमानी देश भक्ति का गाथा आज भी हमारी हिर्दय में देश प्रेम की भावना को पिरोता है।
रानी लक्ष्मीबाई का पचपन
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महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म – 19 नवम्बर 1835 ई को काशी में हुआ था। बचपन का नाम मणिकर्णिका था। उनके पिताजी उन्हें प्यार से मनु कह कर पुकारते थे। पिता का नाम – मोरोपंत तांबे था और माता का नाम – भागीरथी बाई था। उनकी माता का देहान्त तब हुआ था। जब मनु लगभग 5 वर्ष की थी। उनका आगे का पालन पोषण उनके पिता ने किया। उनका पिताजी मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव के महल लेकर जाता था। जहाँ उनका पिता एक पद पर कार्यरत था। मनु का बचपन पेशवा बाजीराव के महल में शिवजी महाराज के वीर गाथाओं को सुनते हुवे बड़ी हुई थी। जहां उन्होंने किताबी शिक्षा के साथ- साथ शस्त्र चलना भी सीख ली मनु बचपन से ही वीर और सहासी थी और युद्ध कला की सारी तालीम उसने बालपन में ही हासिल कर ली थी। तलवारें चलना, घोड़सवारी करना, निसानेवाजी सभी कलाओं में निपुण थी। मनु के अंदर स्वदेश प्रेम की भावना प्रबल होने का एक कारण शिवाजी महाराज का देश भक्ति का गाथा भी था।
झांसी की रानी ( jhansi ki rani)
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वैवाहिक जीवन :- सन 1842 में उनका विवाह मराठा साम्राज्य का अंतिम पेशवा राजा बालगंगाधर राव से हुआ था। विवाह के पश्चात मनु का नाम बदलकर रानी लक्ष्मीबाई रख दिया गया। तभी से लोग उन्हें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम से जानने लगा।
रानी लक्ष्मीबाई अपने विवाह के 9 वर्ष पश्चात् 1851 में एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम दामोदर रखा गया। दुर्भागयवश 4 महीनें पश्चात् ही उनका देहान्त हो जाता है। जिसका गहरा प्रभाव गंगाधर राव पर पड़ता है।कुछ समय बाद गंगाधर राव एक बीमारी से ग्रसित हो जाता है जिससे उनकी स्वस्थ दिन प्रतिदिन बिगड़ती जाती है।
रानी लक्ष्मीबाई पर निबंध (rani laxmi bai in hindi essay)
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और फिर 1853 में अपनी दरबारी सलाहकार के सहमति पर एक बच्चे को गोद ले लिया। जो की उनका छोटा भाई का बेटा था। और फिर उनका नाम दमोदर रखा और फिर ब्रिटिश हुकूमत सामने अपना बेटा दामोदर राव को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। और निर्देश दिया की झांसी का शासन उनके पत्नी के अधिपत्य किया जाय।
नवम्बर 1853 में राजा बालगंगाधर राव का निधन हो गया और झाँसी का सारा दायित्व रानी लक्ष्मीबाई पर आ जाता है. राजा के मृत्यु के पश्चात् ब्रिटिश हुकूमत में झाँसी को हरप्पने का लालच आ गया जिसे अपने अधीन करने के लिए कई साजिश रची गई। और फिर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जर्नल लॉड डलहौजी ने डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स लागु कर दामोदर राव कोउत्तराधिकारी स्वीकार करने से मना कर दिया। और झाँसी के सिहांसन पर दामोदर राव के दावे को ख़ारिज कर दिया। और फरमान जारी कर रानी लक्ष्मीबाई को भेज दिया।
रानी लक्ष्मीबाई ने भरी सभा में ब्रिटिश सरकार के फरमान को पढ़ते हुए फार कर फेंक दिया और जवाबी कारवाही में पैगाम लिखकर भेज दिया मै अपनी झाँसी कभी नहीं दूंगी
मार्च 1854 में ब्रिटिश हुकूमत ने रानी लक्ष्मीबाई के सामने एक प्रस्ताव रखा की आप झाँसी का किला छोड़ दीजिए और सरकार आपको 60000 सालाना पेंशन दे रही हैं। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने उसकी प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया। और फिर ब्रिटिश सरकार दे लोहा लेने के लिए अपना एक मजबूत सेना तैयार कर लिया।
1857 की क्रांति
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वर्ष 1857 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हिंसक आंदोलन छीड़ गया। जिसमें झाँसी से रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सरकार के खिलाप अपना सेना का नेतृत्व किया। ब्रिटिश सेना ने झाँसी के किले पर 10 दिनों तक गोली बारी किया लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया। रानी लक्ष्मीबाई ने प्रतिज्ञा ली थी की हम अपने झाँसी को बचाने के लिए अपने आखरी साँस तक लड़ेंगे। जब ब्रिटिश सेना युद्ध के दम पर झाँसी पर अपना कबजा नहीं कर पा रहा था तो उसने राजनीती कूटनीति का सहारा लिया। और झाँसी के एक सरदार तुला सिंह को लोभ देकर छल से अपने साथ कर लिया और तुला सिंह ने किला का दरवाजा खोल दिया।
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8 अप्रैल 1858 को लगभग 20000 ब्रिटिश सेना किले के अंदर घुस गया और लूट- पाट और काट मार शुरू कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई और ब्रिटिश सेना के बीच भीसन युद्ध हुआ। ब्रिटिश सेना के पास आधुनिक हथियार के साथ- साथ अधिक सेना भी था इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई के सेना ने अंग्रेजों की सेना को धूल चटा दिया और फिर एक ऐसा समय आया जब रानी लक्ष्मीबाई ब्रिटिश सेना से चारों तरफ से घिर गयी तब उसने अपने जनता को बचाने के लिए झाँसी का किला छोड़ने का फैसला कर लिया। और फिर कल्पी के लिए निकल गई
रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध
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रानी लक्ष्मीबाई अपना किला छोड़ने के बाद तात्या टोपे से मिली और उनके साथ अपनी सेना बनाकर ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। और फिर 17 जून 1858 ई को एक बहुत ही हिंसक युद्ध हुआ जिसमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई एक बार फिर अपना सौर्य और वीर क्षेत्राणी का परीचय दिया। और अंग्रेजों की सेना पर कहर बन का टूट परी कई घंटो के घमासान युद्ध के बाद रानी लक्ष्मीबाई जख्मी हो गई और इस युद्ध में रानी की माथे पर तलवार का गहरा चोट लग गयी थी और खून से लतपत हो गई और लड़ते-लड़ते कोटि के के सराय में शहीद हो गई।
रानी लक्ष्मीबाई स्वतंत्रता संग्राम की पहली ऐसी क्षेत्राणि वीरांगना थी। जो अकेली अंग्रेजों से लोहा ली और अपनी आखरी साँस तक अपनी मातृभूमि के लिए लड़ती रही। कभी अंग्रेजों की पराधीनता नहीं स्वीकार किया। वीर योद्धा की भांति अपनी शौर्य, साहस , स्वाभिमान तथा देशभक्ति का परिचय दिया।
सुभद्रा कुमारी चौहान का एक कविता है। जिसमें उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और बलिदान का चित्रण करते हुए कहती है।
यही कही पर बिखर गयी वह , भाग्य विजय माला सी।
उसके फुल यहाँ संचित है , है स्मृति- शाला-सी।
सहे वार पर वार अंत तक लड़ी वीर बाला-सी।
आहुति सी चढ़ गयी चिता पर चमक उठी ज्वाला-सी।
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