Motivational Story In Hindi
motivational story in hindi
Let’s start the topic about story
परिचय
दशरथ मांझी का जीवन
दशरथ मांझी के जीवन में प्रेम का महत्व
दशरथ मांझी का महान कार्य
परिचय
motivational story in hindi दशरथ मांझी का सच्चा प्रेम का एक प्रेरक कहानी
यह कहानी हैं एक ऐसा सक्स का जो शाहजहां के तरह आमिर तो नहीं था। लेकिन अपनी बीबी से शाहजहां की तरह ही सच्ची मोहब्बत करता था। कहते है की अगर दिल में जूनून हो तो असंभव सा लगाने वाला काम भी संभव हो जाता है। वो सच्ची मोहब्बत का ही जूनून था। की मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपने बेगम की याद को जिन्दा रखने के लिए एक असंभव से लगाने वाला काम को संभव बना डाला। ताजमहल जो की दुनियां के सातवां अजूबा में से एक हैं।
कहते हैं की ताजमहल की निर्माण के लिए संसार के कुछ मशहूर वास्तुशिलीपोयों के साथ 20 हजार मजदूरों को इकट्ठा किया गया और 32 करोड़ रूपए खर्च कर 22 सालों बाद ही एक सुन्दर रचना ताजमहल का निर्माण कर पाया। वह भी एक ऐसा ताजमहल , जो अपनी खूबसूरती और अनोखा वास्तुशिल्प के चलते दुनियां का सातवां अजूबा बन गया।
दशरथ मांझी
दशरथ मांझी मुग़ल बादशाह शाहजहां के तरह तो आमिर नहीं था। लेकिन दशरथ मांझी के दिल में अपनी बीबी के लिए बेपनाह मोहब्बत थी। दशरथ मांझी अपनी परिवार के दो वक्त के रोटी के लिए बहुत ही कड़ी परिश्रम करता था। किन्तु फिर भी उनके दिल में अपनी बीबी के लिए भरा मोहब्बत का जूनून किसी शाहजहां से कम नहीं था।
दशरथ मांझी के पास अपनी बीबी की मोहब्बत को रंग रूप देने के लिए न ही प्रयाप्त पैसा था और न ही शाहजहां जैसे साधन और सुविधा थी। इस लिए वह अपनी मोहब्बत के जूनून को रंग रूप देने के लिए खुद ही तन मन से जुड़ गया। उसे भी अपने मकसद को कामयाब करने में शाहजहां के तरह ही 22 साल लग गया।
अब आपके मन में सवाल चल रहा होगा आखिर दशरथ मांझी ने ऐसा क्या किया था। जिसका मोहब्बत का मिसाल किसी शाहजहां से काम नहीं हैं।
आईये जानते है दशथ मांझी के बारे में !
दशरथ मांझी का जीवन
motivational story in hindi दशरथ मांझी का सच्चा प्रेम का एक प्रेरक कहानी
दशरथ मांझी का वास्तविक नाम दसरथ दास था। उसका जन्म सन 1934 में बिहार के गया जिला के गहलौर नामक गांव में हुआ था। दशरथ के जन्म के बाद ही उनका माता पिता ने बचपन में ही उनकी शादी गांव की एक लड़की से कर दी थी। किन्तु दशरथ मांझी बहुत छोटा था जिसकी वजह से वह शादी के रंग में नहीं ढल पाया और वह बचपन में ही गांव छोड़ने का फैसला कर लिया। दशरथ मांझी पढ़ा लिखा नहीं था। इस लिए मजदूरी का काम तलाशते – तलाशते झारखंड के धनबाद जा पंहुचा। और वही पर कोयला के खदान में मजदूरी करने लगा। काफी समय बीत जाने के बाद 22 साल के उम्र में वह वापस अपना गांव आया। अब दशरथ पूरी तरह से जावन और परिपक्क हो गया था।
दशरथ मांझी के जीवन में प्रेम का महत्व
motivational story in hindi दशरथ मांझी का सच्चा प्रेम का एक प्रेरक कहानी
एक दिन दशरथ अपने गांव के गलियों में घूमते – घूमते उनकी निगाह फाल्गुनी से जा टकराई। फाल्गुनी के रंग – रूप और चहरे पर काली घटा के तरह बिखरी जुल्फों ने दशरथ पर ऐसा जादू किया की दशरथ का मन फाल्गुनी में ही अटका रह गया। दशरथ का मन अब फाल्गुनी के लिए बेक़रार होने लगा था। दशरथ का यह बेकरारी कब प्यार में तबदील हो गया उसे पता भी नहीं चला। दशरथ को उनका प्यार का पता तब चला जब वह सोते ,जागते , उठते फाल्गुनी का ख्याल उनके दिल और दिमाग में छाने लगा। दशरथ को यह पता ही नहीं चला की जिस फाल्गुनी के लिए उनका दिल और दिमाग बेक़रार हुआ बैठा हैं। असल में वही फाल्गुनी से दशरथ का बचपन में शादी हुआ था। बेकरारी जब हद से ज्यादा बढ़ाने लगी तो उसने फाल्गुनी को अपना बनाने का फैसला कर लिया और फिर अपने पिता जी के साथ गौना करा कर वापस अपने घर ले आया।।
motivational story in hindi दशरथ मांझी का सच्चा प्रेम का एक प्रेरक कहानी
फाल्गुनी के लिए दशरथ के दिल में भरे बेइतहां प्यार का ही परिणाम था की। दशरथ का मन फाल्गुनी के बिना कही लगता ही नहीं था। अब महज कुछ घंटो की दुरी भी फाल्गुनी से उनको खलता था। दशरथ का यह तरप फाल्गुनी को छोड़ कर वापस धनबाद जाने का हिम्मत नहीं जुटा पाया। उसने मन ही मन फैसला कर लिया की भले ही दो पैसे कम मिले लेकिन गांव में ही रहेंगे। और फिर वह गांव में रहते काम शुरू कर दिया। और वह हर सुबह अपने गांव के नजदीक पहाड़ियों पर चला जाता और हर रोज लकड़ी काटता दोपहर होते – होते उनका प्यार , उनकी पत्नी फाल्गुनी अपने हाथो से खाना बनाकर घर से आ जाती और दोनों एक दूसरे की आंखो में झाकते हुए भोजन करते। फाल्गुनी के हाथो का स्पर्श मानो दशरथ का सरे थकान दूर कर देता था। खाना खाने के बाद वह दुगुने उत्साह से फिर काम में जुट जाते थे।
अचानक ने एक दिन ऐसा हुवा !
motivational story in hindi दशरथ मांझी का सच्चा प्रेम का एक प्रेरक कहानी
गर्मियों का दिन था। आसमान से मनो आग बरस रहा था। फिर भी उसकी परवाह न किये दशरथ हर रोज की तरह लकड़ियां काट रहा था। सुबह से भूखे – प्यासे लगातार काम करते – करते थक गया था। उसने अपने हाथो से कुल्हाड़ी को वही जमीन पर रख दिया और फिर वही पेड़ के छाये में थोड़ा आराम करने लगा। हर रोज की तरह आज फाल्गुनी खाना लेकर अभी तक नहीं आयी थी। दशरथ सूरज के तरफ देख कर समय का अनुमान लगाने का प्रयास कर रहा था। लगभग दोपहर का 2 बज रहा होगा। फाल्गुनी अब तक हर रोज खाना लेकर आ जाती थी। यह सोचकर दशरथ घबरा भी रहा था की आखिर आया क्यों नहीं अभी तक ! दशरथ बार – बार उस रस्ते की तरफ अपनी निगाहे दौरता जिस रस्ते से रोज उनकी पत्नी फाल्गुनी उनके लिए खाना लेकर आती थी। फाल्गुनी का अभी तक नहीं आना मनो दशरथ को बेचैन कर रहा था। अभी तक में बाकि मजदूर की पत्नियां अपनी पति को खाना खिला कर वापस जा ही रही थी की
दशरथ ने आवाज लगाई की। भाभी ! आप घर जा रहे है न देखिये न फाल्गुनी अभी तक आयी नहीं हैं अगर रस्ते में मिले तो बोलियेगा थोड़ा जल्दी आये।
और फिर उस औरत ने जवाब दिया ठीक हैं रस्ते में मिली तो बोल दूंगी। .और फिर वह चली गई। दशरथ को अपना भोजन से ज्यादा फाल्गुनी का चिंता था। क्योकि दोनों अलग – अलग जिस्म होते हुए भी एक जान थे। मनो दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे थे। दशरथ उसके बारे में ही लेटे – लेटे सोच रहे थे की।
अचानक से एक आदमी पहाड़ की तरफ से भागते चिल्लाते हुवे दौरा चला आ रहा था। और वह आदमी सीधा आकर दशरथ के पास रुका और फिर बोला दशरथ भैया ! गजब हो गया ! फाल्गुनी भाभी पहाड़ पर से गिर गई हैं। जल्दी चलो उनकी हालत ठीक नहीं हैं।
उस आदमी की बात सुनकर दशरथ के आँखो के आगे तो अंधेरा छा गया। और फिर वह पागलो सा सरपट उस तरफ भागा। जिस तरफ से उस आदमी आया था। दशरथ जल्दी – जल्दी वहां तक कैसे भी कर के पहुंचा जहाँ उनका फाल्गुनी खून से लतपत जमीन पर पड़ा थी। उनकी हालत पल पल और ख़राब होती जा रही थी। फाल्गुनी की यह दशा देखकर दशरथ का साँसे थम सा गया था। खून से लतपत अपनी फाल्गुनी को बाहों में उठाकर फफक – फफक कर रोने लगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था की वह क्या करे। अचानक से उसे ख्याल आया की अगर वह इसी तरह रोता रहा तो फाल्गुनी का जान बचाना मुश्किल हो जायेगा।
उसे फाल्गुनी का जान बचाने के लिए गहलौर पहाड़ियों के उस पार वजीरगंज के अस्पताल में तुरंत ले जाना जरुरी था
वजीरगंज अस्पताल जाने का महज दो रस्ते थे। एक आसान रास्ता सड़क मार्ग था। जिससे बजीरगंज की दुरी 80 km परती थी। और जिससे तय करने में कई घंटे लगते थे। फाल्गुनी की घायल जान इतना लम्बा इंतजार नहीं कर सकती थी। दूसरा रास्ता पहाड़ की पगडंडियों का था। इससे गहलौर पहाड़ को पार कर बजीरगंज जल्दी पहुंचा जा सकता था। पर यह रास्ता उबर खाबर और पहाड़ी होने के कारण , कम जोखिम भरा नहीं था। आखिरकार दशरथ ने पहाड़ की पाग डंडियों वाला जोखिम रास्ता चुना उसने पास की एक झोपड़ी से खाट मंगाई। बेहोस फाल्गुनी को उस पर लेटाया और अपने साथियों का सहयोग लेकर बजीरगंज जाने वाली पगडंडियों की तरफ बढ़ गया।
पर वह अस्पताल पहुँचता उसने पहले ही फाल्गुनी का शरीर साथ छोड़ दिया और वह इस दुनिया को छोर कर चली गई। मृत फाल्गुनी की गर्व में पल रही बच्ची को डॉक्टर ने बहुत मुश्किल से बचाया। फाल्गुनी इस दुनियां से जा चुकी थी , किन्तु जाते – जाते उसने एक लड़की के रूप में दशरथ को अपने प्यार का तोहफा दे दिया था।
पत्नी की मौत के बाद दशरथ मांझी की जिंदगी ही बदल गई। अब उसे दुनियां की हर चीज नीरस और बेजान सी लगने लगी। वह हमेशा खामोश और गुमसुम रहने लगा था। दशरथ पुरे तरीके से टूट चूका था। वह हमेशा फाल्गुनी के बारे में ही सोचता रहता था। और उस पहाड़ को फाल्गुनी का मरने का वजह मानता था। जिस वजह से दशरथ के अंदर गहलौर पहाड़ के प्रति प्रतिशोध का चिंगारी उठने लगता। जब जब वह फाल्गुनी को याद करता उनका प्रतिशोध का ज्वाला धधक उठता था
दशरथ मांझी का महान कार्य
motivational story in hindi दशरथ मांझी का सच्चा प्रेम का एक प्रेरक कहानी
परिणाम यह निकला की दशरथ मांझी ने प्रतिज्ञा कर लिया की जिस निर्दयी पहाड़ ने उनकी बीबी का जान लिया है। वह उस पहाड़ का सीना फार कर ही चैन का सांस लेगा। वह किसी भी हाल में अपनी बीबी की मौत को बेकार नहीं जाने देगा। उसने मन ही मन फैसला कर लिया की अब वह फाल्गुनी के तरह किसी और को तड़प – तड़प कर मरने नहीं देगा। वह पहाड़ में रास्ता बना कर ही दम लेगा। फाल्गुनी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी यही होगी। फिर क्या एक सुबह दशरथ मांझी ने पहाड़ कटाने के संकल्प को लेकर घर से बाहर निकल गया उनके कंधे पर एक झोला था जिसमे छेनी और हथोड़ा था। और थोड़ी ही देर में पहाड़ के सामने सीना तान के खड़ा हो गया। ऐसा लग रहा था मानो पहाड़ को चुनौती दे रहा हो। दशरथ मांझी ने अपना घर हमेशा के लिए छोड़ दिया और पहाड़ पर ही अपना डेरा हमेशा के लिए जमा लिया और अगले ही पल छेनी हथोड़ी के दम पर पहाड़ का सीना चिराना आरंभ कर दिया।
समय का पहिया आगे खिसकता रहा। कहते हैं की मन में हिम्मत और संकल्प हो तो उसके आगे कुछ ठहर नहीं सकता हैं। इस कहावत को दशरथ मांझी ने सिद्ध कर के दिखा दिया। महज कुछ ही वर्षो में दशरथ मांझी ने अपने छेनी और हथोड़े के दम पर रास्ते का बुनयादी ढांचा बना डाला। भले अभी भी मंजिल दूर था लेकिन मांझी का संकलप और सहस उनसे भी गहरा था। अब तो दशरथ मांझी का पहाड़ कटाने का किस्सा गांव से लेकर शहर तक शोर मचाने लगा था। कई पत्रकारों ने दशरथ मांझी की मेहनत और साहस को अपने अखबार का ताज तक बना डाला।
दशरथ मांझी ने कुछ लोगों का कहने पर सरकार से मदद मिलने की उम्मीद से गया से दिल्ली तक का सफर पैदल नाप डाला इस उम्मीद में की अगर वह अपना नेक इरादा और साहस के पैगाम देगा तो उसे कुछ मदद मिल जाएगी। ताकि सरकारों के माधयम से आधुनिक हथियारों के जरिये रोड बनाने का वर्षो का सपना दिनों में पूरा हो जायेगा। लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।
1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी गया के दौरे पर आयी थी तो उसने दशरथ मांझी के संकल्प और साहस से प्रभावित होकर उनका बहुत तारीफ भी क्या था। और फिर साथ में फोटो भी खिचाई थी।
फिर वर्ष 2007 में जब बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार बने थे। तब दशरथ मांझी सड़क निर्माण के मांग को लेकर पटना जा पहुंचा था जहां पर मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने अपना कुर्सी तक दशरथ मांझी के लिए छोड़ दिया था। वहा से भी मदद मिलाने में देरी की वजह से मांझी ने अकेले अपने दम पर सड़क निर्माण की कार्य को पूरा करने की संकल्प में पूरा जी जान लगा दी।
motivational story in hindi दशरथ मांझी का सच्चा प्रेम का एक प्रेरक कहानी
आखिरकार महज 22 साल के अथक प्रयास के बाद अपनी सच्ची लगन , जूनून और मेहनत के दम पर छेनी हथोड़े से गहलौर पहाड़ का सीना फार कर रोड बना ही डाला। 360 फुट लंबी , 25 फुट गहरी , 30 फुट छोड़ी सड़क बना डाली।
दशरथ मांझी का मृत्यु महज 73 साल की उम्र में कैंसर के कारन हो गया था। उनके मृत्यु के पश्चात् मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने 3 km लंबी सरक और एक अस्पताल बनाने का ऐलान किया था।
दशरथ मांझी के जीवन पर मसहूर फ़िल्म डायरेक्टर केतन मेहता ने उनके अंतिम समय में उनसे फ़िल्म बनाने का अनुमति ली थी जिस फ़िल्म का नाम है मांझी : द माउंटेन मैन जो एक सफल फ़िल्म रही
दशरथ मांझी हमेशा कहता था की हमें कभी भगवान के भरोसे नहीं बैठना चाहिए क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो।
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